۴ آذر ۱۴۰۳ |۲۲ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 24, 2024
محرم

हौज़ा / जैसे ही नवासा ए रसूल स. हज़रत इमाम हुसैन अ.स. के क़याम व शहादत का महीना मोहर्रम शुरु होता है वैसे ही एक ख़ास सोच के लोग इस याद और तज़करे को कमरंग करने की कोशिशें शुरु कर देते हैं। कभी रोने जो सुन्नते रसूल स. है की मुख़ालेफ़त की जाती है, तो कभी आशूर के रोज़े का इतना प्रचार किया जाता है इसी बात को साबित करने के लिए कुछ हादसे आपके सामने पेश करते हैं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,जैसे ही नवासा ए रसूल स. हज़रत इमाम हुसैन (अ) के क़याम व शहादत का महीना, मोहर्रम शुरु होता है वैसे ही एक ख़ास सोच के लोग इस याद और तज़करे को कमरंग करने की कोशिशें शुरु कर देते हैं। कभी रोने (जो सुन्नते रसूल स. है) की मुख़ालेफ़त की जाती है, तो कभी आशूर के रोज़े का इतना प्रचार किया जाता है।

जिस से ऐसा महसूस होता है कि 10 मोहर्रम 61 हिजरी में कोई हादसा हुआ ही नहीं था। बल्कि सिर्फ़ बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी का दिन है और बाज़ इस्लामी देश तो इस का एलान और प्रचार सरकारी पैमाने पर करते हैं और दलील के तौर पर किताब सहीह बुख़ारी वग़ैरा की हदीसें पेश की जाती हैं,

अभी कुछ साल पहले की बात है कि सऊदी अरब की न्यूज़ एजंसी ने अपने एक बयान में अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद आले शैख़ की जानिब से एलान किया था कि पैग़म्बरे अकरम (स) से रिवायत हुई है कि: आँहज़रत (स) आशूर के दिन रोज़ा रखते थे और लोगों को भी इस दिन रोज़ा रखने का शौक़ दिलाते थे, क्योंकि आशूरा वह दिन है जिस रोज़ ख़ुदावंदे आलम ने मूसा और उनकी क़ौम को फ़िरऔन और उसकी क़ौम से नजात दी थी लेहाज़ा हर मुसलमान मर्द और औरत पर मुस्तहब है कि 10 मोहर्रम को ख़ुदा के शुकराने के तौर पर रोज़ा रखें।

तअज्जुब है! हमने सऊदी सरकार का कोई बयान हादसा ए आशूरा के बारे में न पढ़ा जिस में नवासा ए रसूल (स) की दिलसोज़ शहादत पर रंज व अलम और ग़म का इज़हार किया गया हो, नबी ए इस्लाम (स) की पैरवी का दावा करने के बावजूद भी अपने नबी (स) के नवासे से इतनी बेरुख़ी! और बनी इस्राईल की नजात की यादगार से इतनी दिलचस्पी!?

अगर नबी (स) और उनकी क़ौम की नजात पर रोज़ा रखना मुस्तहब है तो फिर जिस दिन जनाबे इब्राहीम (अ) को ख़ुदा ने नमरुद की आग से नजात दी उस दिन भी रोज़ा रखना चाहिए, जिस दिन जनाबे नूह (अ) की कश्ती कोहे जूदी पर ठहरी और उन्हें इनके साथियों समीत डूबने से नजात मिली उस दिन भी रोज़ा रखना मुस्तहब होना चाहिए, और यह दिन वह था जब सूरज बुर्जे हमल में जाता है जो ईसवी कलेंडर में 21 मार्च को होता है, रसूल अल्लाह (स) अगर जनाबे मूसा (अ) और उनके साथियों की नजात पर शुकराने का रोज़ा रखेंगे तो फिर दीगर अम्बिया अलैहिमुस्सलाम की नजात पर भी रोज़ा रखा होगा, अगर रखा होगा तो 21 मार्च को रोज़ा रखने का प्रचार इस पैमाने पर क्यों नहीं किया जाता, यह रोज़े भी तो सुन्नत कहलाएंगे?

अब आईये किताब सहीह बुख़ारी की उन रिवायतों पर तहक़ीक़ी निगाह डालते हैं जिनको बुनयाद बनाकर आशूर के रोज़े का प्रचार किया जाता है।

जनाबे आएशा से बुख़ारी में एक रिवायत इस तरह है कि: आशूर के दिन ज़माना ए जाहेलियत में क़ुरैश रोज़ा रखते थे, रसूले ख़ुदा (स) भी इस रोज़ (आशूर) को रोज़ा रखते थे और जिस वक़्त आप मदीना तशरीफ़ लाए तो आशूर के रोजे़ को उसी तरह बाक़ी रखा और दूसरों को भी हुक्म दिया, यहाँ तक कि माहे रमज़ान के रोज़े वाजिब हो गए, इसके बाद आँहज़रत ‌‌‌(स) ने आशूर का रोज़ा छोड़ दिया और हुक्म दिया कि जो चाहे आशूर के दिन रोज़ा रखे और जो चाहे न रखे। (सहीह बुख़ारी, जिल्द 2, पेज 250, हदीस 2002, किताब अलसौम, बाब 69 बाब सीयामे यौमे आशूरा, मुहक्किक़ मुहम्मद ज़ुहैर बिन नासिर अल नासिर, नाशिर दारुल तौक़ अल नजात, पहला एडीशन 1422 हिजरी)

मज़कूरा रिवायत के सिलसिला ए सनद में हश्शाम बिन उरवाह मौजूद है जिसकी वजह से सिलसिला ए सनद में इशकाल पैदा हो गया है क्योंकि इब्ने क़त्तान ने हश्शाम बिन उरवाह के बारे में कहा है कि: यह (हश्शाम बिन उरवाह) मत्न (मैटर) को बदल डालता था और ग़लत को सहीह में मिला दिया करता था।

अल्लामा ज़हबी ने कहा है कि यह कुछ महफ़ूज़ बातों को भूल जाया करता था या उसमें शक हो जाता था। (मीज़ानुल एतदाल, जिल्द 4, पेज 301, तहक़ीक़ अली मुहम्मद अलबहावी, नाशिर दारुल मारेफ़त लिलतबाअत वन्नश्र, बैरुत, लेबनान, 1963 ई)

इसके अलावा यह रिवायत सहीह बुख़ारी ही की दूसरी रिवायतों से तनाक़ुज़ (टकराव) रखती है और टकरा रही है, जैसे सहीह बुख़ारी में अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से एक रिवायत है कि: जब रसूले ख़ुदा (स) ने मक्का से मदीना हिजरत फ़रमाई और मदीना तशरीफ़ लाए तो यहूदियों को देखा कि आशूर के दिन रोज़ा रखे हुए हैं तो आप (स) ने फ़रमाया कि यह रोज़ा (उन्होंने) क्यों रखा है? जवाब मिला: यह ख़ुशी का दिन है क्योंकि इस रोज़ ख़ुदावंदे आलम ने बनी इस्राईल को दुश्मनों से नजात दी थी लेहाज़ा मूसा और उनकी क़ौम इस दिन रोज़ा रखती है, आँहज़रत स. ने फ़रमाया कि मैं मूसा की पैरवी करने में बनी इस्राईल से ज़ियादा सज़ावार (हक़दार) हूँ लेहाज़ा आँहज़रत (स) ने आशूर को रोज़ा रखने का हुक्म दिया कि (मुसलमान भी) इस दिन रोज़ा रखे। (सहीह बुख़ारी, जिल्द 2, पेज 251, हदीस 2004)

पहली रिवायत तो यह कह रही है कि पैग़म्बरे इस्लाम स. और क़ुरैश ज़माना ए जाहेलियत से ही रोज़े आशूर को रोज़ा रखते चले आ रहे हैं और ज़हूरे इस्लाम के 13 साल बाद तक भी मक्का में यह रोज़ा रखा और हिजरत के बाद मदीना में रमज़ान के रोज़े वाजिब हुए इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मुसलमानों को इख़्तियार दिया कि चाहें तो आशूर को रोज़ा रख लें और चाहें तो न रखें, लेकिन सहीह बुख़ारी की मज़कूरा दूसरी रिवायत कहती है कि रसूले ख़ुदा (स) ने जिस वक़्त मक्का से मदीना हिजरत फ़रमाई तो न सिर्फ़ यह कि आप आशूर को रोज़ा नहीं रखते थे बल्कि आपको इसके बारे में कोई इत्तला भी नहीं थी और जब आपने यहूदियों को रोज़ा रखते हुए देखा तो तअज्जुब के साथ इस रोज़े के बारे में सवाल किया, आप स. ने जवाब में सुना के यहूद जनाबे मूसा और बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी में इस दिन रोज़ा रखते हैं, तो रसूले ख़ुदा ने फ़रमाया किः अगर ऐसा है तो मैं अपने आपको कुफ़्फ़ारे मक्का के हाथों से नजात पाने की ख़ुशी में मूसा से ज़ियादा सज़ावार (हक़दार) समझता हूँ कि इस दिन रोज़ा रखूँ, इसके बाद से न सिर्फ़ यह कि हज़रत (स) ने ख़ुद रोज़ा रखा बल्कि दूसरों को भी इसका हुक्म दिया।

इन दोनों रिवायतों में कौन सी रिवायत को सहीह क़रार दिया जाए? दोनों एक साथ सहीह नहीं हो सकतीं?

सहीह बुख़ारी में एक और रिवायत इब्ने उमर से मौजूद है जो मज़कूरा इस दूसरी रिवायत से भी तनाक़ुज़ (टकराव) रखती है और वह यह है कि: रसूले ख़ुदा स. आशूर के दिन रोज़ा रखते थे और दूसरों को भी यह रोज़ा रखने का हुक्म फ़रमाते थे। यहाँ तक कि माहे रमज़ान के रोज़े वाजिब हो गए, इसके बाद से रोज़े आशूर का रोज़ा छोड़ दिया गया और अब्दुल्लाह इब्ने उमर ने भी इस दिन रोज़ा नहीं रखा, लेकिन अगर आशूरा ऐसा दिन होता था जिसमें मुसलमान रोज़ा रखते ही थे जैसे जुमे का दिन, तो आशूर को भी रोज़ा रख लेते थे। (सहीह बुख़ारी, जिल्द 2, हदीस 1892, किताब अस्सियाम, बाब वजूबे सौमे रमज़ान)

इस रिवायत में आशूर के रोज़े का इख़्तियारी या इजबारी (लाज़िम) होना ज़िक्र नहीं है, बल्कि आशूर के दिन रोज़ा न रखने का ज़िक्र है और अब्दुल्लाह इब्ने उमर भी माहे रमज़ान के रोज़े वाजिब होने के बाद आशूर का रोज़ा नहीं रखते थे।

अब यहाँ सवाल यह पैदा होता है कि अगर यह सुन्नत इतनी अहम थी तो ख़लीफ़ा ए सानी उमर के बेटे ने इसे क्यों छोड़ दिया था?

इसके अलावा और बहुत से अहले मदीना भी आशूर के दिन रोज़ा नहीं रखते थे। एक रिवायत के मुताबिक़ मुआविया इब्ने अबु सुफ़यान को यह कहते हुए सुना गया है कि: मुआविया इब्ने अबु सुफ़यान से आशूरा के दिन मिम्बर पर सुना, उसने कहा कि ऐ अहले मदीना! तुम्हारे उलमा किधर गए? मैंने रसूल अल्लाह (स) को यह फ़रमाते सुना कि यह आशूरा का दिन है, इसका रोज़ा तुम पर फ़र्ज़ नहीं है लेकिन मैं रोज़े से हूँ और अब जिसका जी चाहे रोज़े से रहे (और मेरी सुन्नत पर अमल करे) और जिसका जी चाहे न रहे। (सहीह बुख़ारी, किताब अस्सियाम, हदीस 2003)

सहीह बुख़ारी की इस रिवायत में मुआविया का अंदाज़े ख़िताब बता रहा है कि अहले मदीना भी आशूर के दिन रोज़ा नहीं सखते थे!

इस रिवायत के बर ख़िलाफ़ किताब "मजमा उल ज़वाइद" में हैसमी की रिवायत है कि हैसमी अबू सईद ख़ुदरी से रिवायत करते हैं कि: रसूले ख़ुदा (स) ने आशूर को रोज़ा रखने का हुक्म फ़रमाया जबकि आपने ख़ुद रोज़ा नहीं रखा था। (मजमा उल ज़वाएद, जिल्द 3, पेज 186, हदीस 5117, किताब अल सियाम, बाब फ़ी सियामे आशूरा, तहक़ीक़ हसामुद्दीन क़ुदसी, नाशिर मकतबतुल क़ुदसी, क़ाहेरा 1994 ई)

ऐसा कभी हुआ ही नहीं के रसूले इस्लाम (स) ने मुसलमानों को कोई अमल अंजाम देने का हुक्म दिया हो और ख़ुद अमल न किया हो, इसके अलावा मज़कूरा रिवायत से रसूले ख़ुदा (स) पर अहले किताब की पैरवी का इलज़ाम भी लगता है जो कि ठीक नहीं है।

सहीह बुख़ारी ने अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से एक रिवायत नक़्ल की है कि जो उपर ज़िक्र की गई तमाम रिवायतों से तज़ाद (टकराव) रखती है और वह यह है कि: रसूले ख़ुदा (स) को यह बात पसंद थी कि जिन उमूर में ख़ुदावंदे आलम की जानिब से आप के लिए हुक्म सादिर नहीं हुआ है उसमें अहले किताब की पैरवी करें। (सहीह बुख़ारी, जिल्द 4, हदीस 3558, किताबुल मनाकिब)

इसके अलावा इब्ने हजर असक़लानी कहते हैं कि: उन मवारिद में जिन में रसूले ख़ुदा (स) के लिए अल्लाह का हुक्म नहीं होता था तो आप (स) अहले किताब से मुआफ़ेक़त कर लेते थे। (फ़तहुलबारी, इब्ने हजर असक़लानी शाफ़ेई, जिल्द 4, पेज 245-246, बाब सियामे आशूरा, नाशिर दारुल मारेफ़त, बैरुत, लेबनान, 1379 हिजरी)

समझ में नहीं आता! यह कैसे मुमकिन है कि हमारे नबी (स) जो अफ़ज़ले अंबिया हैं, अपने से कम अहले किताब की पैरवी किस तरह की होगी!?

ग़ौर करने का मक़ाम है कि जब यहूदियों की मुख़ालेफ़त में बक़ौल बुख़ारी के जूतों समीत नमाज़ पढ़ने की इजाज़त रसूले अकरम (स) ने दे दी! (अल तिबरानी, अलमोजम अलकबीर, मुहक्किक़ हमदी बिन अब्दुल मजीद सलफ़ी, नाशिर मकतबा ए इब्ने तैमिया, क़ाहेरा, दूसरा एडीशन)

हालाँकि जूतों समीत नमाज़ पढ़ने से नमाज़ का तक़द्दुस पामाल होता है, तो फिर यहूद की मुवाफ़ेक़त में रसूले अकरम (स) रोज़ा रखने का हुक्म किस तरह सादिर फ़रमा सकते हैं?

गोया यहूदियों की मुख़ालेफ़त इतनी अहम है कि इसकी वजह से नमाज़ के तक़द्दुस और एहतराम को भी नज़र अंदाज़ किया जा सकता है, तो फिर यहूदियों की मुआफ़ेक़त में आले रसूल (स) को किस तरह नज़र अंदाज़ कर दिया गया?!

आशूर के दिन नबी ए अकरम (स) की बेहतरीन सीरत और सुन्नत यह है कि हम इमाम हुसैन (अ) के ग़म में ग़मगीन रहें और गिरया करें और यही सीरत, उम्मुल मोमेनीन हज़रत उम्मे सलमा (र) की भी थी। बहरहाल इन तमाम रिवायतों से चंद बातें साबित होती हैं और वह यह हैं कि:

1- आशूर का रोज़ा बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी का रोज़ा है।

2- आशूर के रोज़े का हुक्म ख़ुदावंदे आलम की जानिब से नहीं आया है।

3- आशूर के दिन रोज़ा रख कर मआज़ अल्लाह नबी (स) ने बग़ैर हुक्मे ख़ुदा के यहूदियों और ईसाइयों की पैरवी की है, जो कि मक़ामे रिसालत के ख़िलाफ़ और मनाफ़ी है।

जिस से यह साबित होता है कि आशूर को रोज़ा रखने की कोई तरजीही वजह मौजूद नहीं है, क्योंकि 61 हिजरी में आशूर के रोज़ अहलेबैते पैग़म्बर (स) पर वह ग़म व अलम के पहाड़ तोड़े गए जिसकी याद मनाना हर मुसलमान के लिए ज़रुरी है, नबी (स) के नवासे ने इस्लाम के लिए ही इतनी अज़ीम क़ुरबानी पेश की है और इस राह में वह मसाएब बरदाश्त किए हैं कि जिनको सुन कर ही कलेजा मूँह को आने लगता है, लेहाज़ा ऐसी अज़ीम और अहम यादगार के होते हुए जिसने इस्लाम को नई ज़िंदगी बख़्शी हो, बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी मनाने को न तो अक़्ल कहती है और न ही इस्लामी ग़ैरत का तक़ाज़ा है, बल्कि ज़रुरी है कि हर मुसलमान को अपने नबी (स) के नवासे की याद मोहर्रम में आशूर के रोज़ ग़म से मनानी चाहिए और यह सुन्नते रसूले ख़ुदा (स) है।

हज़रत उम्मे फ़ज़ल बिन्ते हारिस से रिवायत है कि उन्होंने आँहज़रत (स) की ख़िदमत में हाज़िर होकर अर्ज़ कियाः या रसूल अल्लाह (स) मैं ने आज रात एक बुरा ख़्वाब देखा है, आपने फ़रमायाः क्या देखा है? अर्ज़ कियाः बहुत ही सख़्त है (बयान से बाहर है) आपने फिर फ़रमायाः क्या देखा है? अर्ज़ किया: मैं ने देखा है कि गोया आपके जिस्मे अतहर का एक टुकड़ा काट कर मेरी गोद में डाल दिया गया है, आँहज़रत (स) ने फ़रमायाः तुमने तो बहुत अच्छा ख़्वाब देखा है अल्लाह तआला ने चाहा तो मेरी बेटी फ़ातेमा के लड़का पैदा होगा और वह बच्चा तुम्हारी गोद में रहेगा। (ऐसा ही हुआ) हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) के यहाँ हज़रत इमाम हुसैन (अ) की विलादत हुई और वह जैसा कि हुज़ूर (स) ने इरशाद फ़रमाया था मेरी गोद में आए। फिर एक रोज़ मैं इमाम हुसैन अ.स को लेकर आँहज़रत (स) की ख़िदमते मुबारका में हाज़िर हुई और उनको आपकी आग़ोश में दे दिया, इसी असना में मेरी तवज्जोह ज़रा देर के लिए दूसरी तरफ़ हुई तो क्या देखती हूँ कि रसूल (स) की आँखों से आँसू बह रहे हैं, मैं ने अर्ज़ कियाः या रसूल अल्लाह (स) मेरे माँ बाप आप पर निसार, आप को क्या हो गया, फ़रमायाः जिब्रील मेरे पास आए थे, उन्होंने मुझे बताया कि मेरी उम्मत मेरे बेटे को अनक़रीब क़त्ल कर देगी, मैं ने अर्ज़ कियाः इन को, फ़रमायाः हाँ! और मुझे इनके मक़तल की लाल रेत भी लाकर दी है। (अल मुस्तदरक अल सहीहैन लिल हाकिम, जिल्द 3, पेज 194, हदीस 4818, तहक़ीक़ मुस्तफ़ा अब्दुल क़ादिर अता, नाशिर दारुलकुतुब अल इलमिया, बैरुत, लेबनान, पहला एडीशन 1990)

हज़रत रसूले अकरम (स) का इमाम हुसैन (अ) की शहादत की ख़बर पर रोना क्या ऐसा काम नहीं है जिसकी मुसलमान आशूर के दिन पैरवी करें? तो फिर यहूदियों की पैरवी करते हुए उनकी नजात की ख़ुशी में रोज़े क्यों रखे जाते हैं?

रसूले ख़ुदा (स) के ग़म पर यहूदियों की ख़ुशी मुक़द्दम! ऐसा क्यों?

इसी तरह हज़रत सलमा (र) बयान करती हैं कि मैं उम्मुल मोमेनीन हज़रत उम्मे सलमा (र) की ख़िदमत में हाज़िर हुई तो देखा वह रो रही थीं, मैं ने अर्ज़ किया आप क्यों रोती हैं, फ़रमाने लगीं: मैंने रसूल अल्लाह (स) को ख़्वाब में इस हालत में देखा है कि आप की दाढ़ी और सरे मुबारक पर ख़ाक पड़ी हुई थी, मैंने अर्ज़ किया या रसूल अल्लाह स.!! आप को क्या हो गया? फ़रमायाः अभी अभी हुसैन (अ) को क़त्ल होते देखा है। (जामे सुनन तिरमिज़ी, जिल्द 6, पेज 120, हदीस 3771, बाब 31 मनाकिब अलहसन वल हुसैन, मुहक्किक बशार अवाद मारुफ़, नाशिर दारुलग़रब बैरुत, लेबनान 1998 ई)

बाज़ लोग इस हदीस को मशकूक करने के लिए यह कह रहे हैं कि उम्मुल मोमेनीन जनाबे उम्मे सलमा (र) की वफ़ात, शहादते इमामे हुसैन (अ) से 2 साल पहले हो चुकी थी लेहाज़ा यह रिवायत सहीह नहीं है लेकिन अहले सुन्नत के मोतबर मुवर्रिख़ अल्लामा ज़हबी ने लिखा है कि: बाज़ लोगों ने यह गुमान किया है कि हज़रत उम्मे सलमा (र) की वफ़ात 59 हिजरी में हुई है, यह भी (उनका) वहम है, ज़ाहिर यह है कि उनकी वफ़ात 61 हिजरी में (शहादते इमाम हुसैन के बाद) हुई है। (आलामुन नबला, जिल्द 2, पेज 210, नाशिर मुअस्ससा अल रिसाला, तीसरा एडीशन 1985)

जिस से मालूम होता है कि शहादते इमाम हुसैन (अ) के वक़्त हज़रत उम्मुल मोमिनीन उम्मे सलमा ज़िंदा थीं और उन्होंने इमाम हुसैन (अ) की शहादत से बाख़बर होकर गिरया किया और रंज व ग़म का इज़हार किया।

रसूले इस्लाम (स) अपनी ज़िंदगी के बाद भी इमाम हुसैन (अ) के ग़म में इस क़द्र रंजीदा नज़र आ रहे हैं और आप की सुन्नत पर मर मिटने वाला मुसलमान बजाए इसके कि आशूर को अज़ादारी करे या ग़म मनाए, बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी में रोज़ा रखता है, क्या हुज़ूर (स) से मुहब्बत का यही तक़ाज़ा है!?

दूसरे यह कि जिस रोज़े को रखने का हुक्म ख़ुदावंदे आलम की तरफ़ से न आया हो उसके रखने पर इतनी ताकीद क्यों की जाए और नबी (स) के नवासे की याद पर ऐसा ख़ुशी का रोज़ा रखने की सिवाए अदावत व दुश्मनी ए आले रसूल (स) के और क्या वजह हो सकती है!?

और तीसरे यह कि हमारे नबी (स) यहूदियों और ईसाइयों की मुवाफ़ेक़त नहीं कर सकते क्योंकि अहले सुन्नत और शीया उलमा का अक़ीदा यह है कि रसूले ख़ुदा (स) बेसत से पहले भी अपनी इबादत वग़ैरा में यहूदियों और ईसाइयों के क़वानीन और दीन की पैरवी नहीं कर सकते।

फ़ख़रे राज़ी जो कि अहले सुन्नत के बड़े आलिम हैं इस बारे में दलील देते हुए लिखते हैं कि: रसूल अल्लाह (स) अगर बेसत से पहले किसी (मूसा, ईसा (अ)) की शरीयत के मुताबिक़ इबादत कर लेते तो लाज़िम था कि उन हवादिस के मौक़ों पर जो बेसत के बाद आप पर रुनुमा हुए, अपने माक़बल शरीयतों की तरफ़ मुराजेआ कर लेते और 'वही' (क़ुरआन) का इन्तज़ार न करते, लेकिन आँहज़रत (स) ने ऐसा नहीं किया और इसकी 2 दलीलें हैं: एक यह कि अगर हुज़ूर (स) ने ऐसा किया होता तो ज़रुर मुसलमानों के दरमियान मशहूर हो जाता। दूसरे यह कि एक बार हज़रत उमर ने तौरैत का एक पेज पढ़ लिया था बस इसी बात पर रसूले ख़ुदा (स) ग़ज़बनाक हो गए और फ़रमाया किः अगर मूसा ज़िंदा होते तो मेरी इत्तबा और पैरवी करने के अलावा उनके पास कोई रास्ता न होता (बस किस तरह कहा जा सकता है कि नबी ए अकरम (स) ने यहूदियों की पैरवी में आशूर के दिन ख़ुद भी रोज़ा रखा और मुसलमानों को भी इसका हुक्म दिया?)

फ़ख़रे राज़ी ने इस मौज़ू पर और भी दलीलें दी हैं जिनको उनकी किताब (अल महसूल, जिल्द 3, पेज 263-264, तहक़ीक़ डा. ताहा जंबिर फ़याज़ुल उलवानी, नाशिर मुअस्ससातुल रिसाला, तीसरा एडीशन 1997 ई) में देखा जा सकता है।

शरहे मिश्कात में रसूल अल्लाह (स) से रिवायत नक़्ल की गई है कि रसूल अल्लाह (स) ने फ़रमाया कि: वह हम में से नहीं है जो हमारे ग़ैर, यहूदियों और ईसाइयों की शबाहत इख़्तियार करे। (मिरक़ातुल मफ़ातीह शरहे मिशकातुल मसाबीह, अली बिन सुलतान मुहम्मद अलक़ारी, पेज 22, हदीस 4649, नाशिर दारुल फ़िक्र, बैरुत, लेबनान 2002 ई)

यह कैसे मुमकिन है कि जिस काम से रसूले अकरम (स) दूसरों को मना फ़रमायें उसे ख़ुद अंजाम दें? मज़कूरा बाला हदीस में सख़्ती से यहूदियों और ईसाइयों की शबाहत को मना फ़रमाया है और मुसलमान यहूदियों की मुवाफ़ेक़त और पैरवी में आशूर को रोज़ा रखने की निसबत रसूल (स) की तरफ़ दे रहा है!?

एक बात और क़ाबिले ज़िक्र है कि क़ुरैश का कलेंडर ‘‘क़ुसा”  था और यहूदियों का कलेंडर जिसके मुताबिक़ वह अपने आमाल अंजाम देते थे वह ‘‘हिलाल 2” था और इन दोनों में फ़र्क़ है, लेहाज़ा यह मुमकिन ही नहीं है कि दोनों कलेंडरों का आशूरा एक ही चीज़ हो या एक ही दिन हो लेहाज़ा यह कैसे मान लिया गया कि यहूदियों के रोज़े रखने की यह सुन्नत और रस्म हर साल दसवीं मोहर्रम को होती होगी और पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने आशूर के रोज़े का हुक्म यहूदियों की इत्तबा या मुख़ालेफ़त में दिया???

इसके अलावा इस्लामी कलेंडर मज़कूरा दोनों कलेंडर से बिल्कुल मुख़तलिफ़ और जुदा है और चाँद की तारीख़ के हिसाब से चलता है बल्कि रसूल अल्लाह (स) के दौर में तो इस्लामी कलेंडर मौजूद ही नहीं था, इसकी इब्तेदा तो रसूल (स) की वफ़ात के बहुत बाद में हुई और इसमें हिजरत के साल को पहला साल तसलीम किया गया। इस्लामी कलेंडर में एक साल में 355 दिन ही होते हैं और यहूदी कलेंडर में भी 355 दिन होते हैं, मगर वह हर तीसरे या चौथे साल इसमें 10 दिन का इज़ाफ़ा करके इसे मौजूदा शम्सी (ईसवी) साल के बराबर कर देते हैं।

इसके अलावा 10 मोहर्रम सन 1 हिजरी को रसूले इस्लाम (स) मदीना पहुँचे ही नहीं बल्कि मक्का ही में तशरीफ़ रखते थे, सभी मुवर्रेख़ीन (इतिहासकार) व मुहद्देसीन का इस पर इत्तेफ़ाक़ है कि रसूले इस्लाम (स) आशूरा सन 1 हिजरी के दो महीने बाद यानी 12 रबीउल अव्वल पीर के दिन मदीना पहुँचे।(तारीख़े तबरी, जिल्द 2, पेज 392, नाशिर दारुततुरास, बैरुत, लेबनान, दूसरा एडीशन 1387 हि)

लेहाज़ा मदीना पहुँच कर हुज़ूर (स) ने यहूदियों को आशूर के दिन रोज़ा रखते हुए कहाँ से देख लिया?

इस तहक़ीक़ में इस नुक्ते पर तवज्जोह बहुत ज़रुरी है कि जिसने भी रसूल अल्लाह स. पर यह झूठ बाँधा है वह मदीना से तअल्लुक़ नहीं रखता था बल्कि वह शामी (सीरिया का) रहा होगा, क्योंकि अगर हदीस गढ़ने वाला मदीना का बाशिंदा होता तो उसे यह इल्म ज़रुर होता कि जिस दिन मूसा को फ़तह हुई और फ़िरऔन से नजात मिली उस दिन को यहूदी ‘‘ईद उल फ़सह" कहते हैं और उस दिन वह रोज़ा नहीं रखते हैं।

आज भी आप तहक़ीक़ कर सकते हैं और यहूदियों से मालूम कर सकते हैं, यहूदियों के यहाँ रोज़ों की 6 किस्में हैं, जिनमें ईद उल फ़सह यानी जनाबे मूसा और बनी इस्राईल की नजात या फ़िरऔन पर फ़तह का दिन इनमें शामिल नहीं है। इसकी तफ़सील आप इंटरनेट पर भी इस लिंक पर देख सकते हैं:

http://www.hebrew4christians.com/Holidays/Fast_Days/fast_days.html

जो लोग आशूर के दिन रोज़ा रखने वाली रिवायतों के हामी हैं वह यह भी कहते हैं कि ऐसी रिवायत में मौजूद ‘‘आशूर”  का दिन यहूदियों का ‘‘यौमे कैपूर” (यौम उल ग़ुफ़रान) था जो के यहूदियों के कलेंडर के मुताबिक़ ‘‘तशरीन” महीने की 10 तारीख़ होती है। यानी यह मोहर्रम का आशूर नहीं है, अगर ऐसा है तो फ़िर मोहर्रम के आशूर को रोज़ा रखने की ताकीद क्यों की जाती है? और दूसरे यह कि यौमे कैपूर का मूसा की फ़िरऔन पर फ़तह से दूर दूर तक तअल्लुक़ नहीं, बल्कि यौमे कैपूर यहूदियों के लिए ‘‘तौबा का दिन” है और उसे ‘‘अशरा ए तौबा” कहा जाता है। यहूदियों के नज़दीक यौमे कैपूर तौबा का आख़री मौक़ा होता है जिसमें यहूदी बा जमाअत होकर ख़ुदा से अपने आमाल की माफ़ी माँगते हैं लेहाज़ा यह तो किसी तरह मुमकिन ही नहीं है कि यौमे कैपूर को मूसा की फ़िरऔन पर फ़तह का दिन बना कर रोज़ा रखने वाली रिवायात गढ़ दी जाएं?

इसके अलावा यह बात भी साबित है कि इस्लामी कलेंडर के मोहर्रम की 10 तारीख़ सन 1 हिजरी में यहूदियों के कलेंडर के तशरीन महीने की 10 तारीख़ को नहीं थी, इंटरनेट पर आप Gregorian-Hijri Dates Converter के ज़रिए चैक कर सकते हैं। बल्कि 25 जुलाई 622 ई. थी और यहूदियों की ईद 30 मार्च 622 ई. थी।

इस से भी बढ़कर अहम बात यह है कि रसूल (स) की मदनी ज़िंदगी में कभी भी यह दो दिन (यानी इस्लामी आशूरा ए मोहर्रम और यहूदी यौमे कैपूर) एक ही दिन नहीं आए।

इस्लामी और यहूदी कलेंडर के फ़र्क़ के मुताबिक़ यह दोनों दिन (यानी इस्लामी आशूरा ए मोहर्रम और यहूदी यौमे कैपूर) रसूले इस्लाम (स) के मदीना हिजरत करने के सिर्फ़ 29 साल के बाद ही एक ही दिन वाक़े हो सकते हैं, जबकि रसूले इस्लाम (स) की वफ़ात 11 हिजरी में हो चुकी थी, इसका मतलब यह है कि रसूले इस्लाम (स) ने आशूर के दिन बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी में कोई रोज़ा रखा ही नहीं और न यहूदियों को रोज़ा रखते हुए देखा!

अफ़सोस! बनी उमय्या और यज़िदियों के प्रचार से मुताअस्सिर लोग, आशूर के दिन रोज़ा रखने पर ही ज़िद करते है और तरह तरह की तावीलें पेश करते हैं जैसे यह कि रसूले इस्लाम (स), मदीना रबीउल अव्वल ही में तशरीफ़ लाए थे मगर यहूदियों को उन्होंने बाद के बरसों में रोज़ा रखते हुए देखा और मुसलमानों को रोज़ा रखने का हुक्म दे दिया, जबकि ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि रमज़ान के रोज़े 2 हिजरी में ही फ़र्ज़ हो गए थे और 2 हिजरी तो क्या रसूल (स) की तो पूरी मदनी ज़िंदगी में भी इस्लामी आशूरा ए मोहर्रम और यहूदी यौमे कैपूर कभी एक साथ इकट्ठा नहीं हुए बल्कि 29 साल के बाद पहली मरतबा यह एक तारीख़ को एक ही दिन आए थे, तो फ़िर इस्लामी आशूरा ए मोहर्रम को हर साल रोज़ा रखना क्योंकर सुन्नत हो जाएगा!?

ईद उल फ़सह (Passover) जब यहूदियों को फ़िरऔन से नजात मिली, वह यहूदियों के महीने ‘‘नैसान” की 15 तारीख़ है (इस महीने की 10 तारीख़ को बनी इस्राईल मिस्र से रवाना हुए और 15 को उन्हें नजात मिली) साइंटिफिक कैलकूलेटर के मुताबिक़ 1 हिजरी का आशूरा ए मोहर्रम 25 जूलाई 622 ई. के मुताबिक़ होता है, जबकि उस साल यहूदियों की ईद उल फ़सह 30 मार्च 622 ई. को हुई (इस कैलकुलेशन में ज़ियादा से ज़ियादा 10 दिन का फ़र्क़ हो सकता है) यह कैलकुलेशन आप इंटरनेट पर भी इस लिंक पर कर सकते हैं:

www.hebcal.com/converter/?hd=10an&hy=4382&h2g=convert+&hm=NisHebrew+to+Gregorian+date

इसके अलावा यहूद का रोज़ा सूरज डूबने से अगले दिन सूरज डूबने तक होता है जबकि इस्लाम में ऐसे रोज़े का कोई वजूद नहीं है तो जब इस तरह का रोज़ा रखना ही सहीह नहीं है तो इसकी पैरवी में हर साल आशूर को रोज़ा रखना कहाँ से सहीह हो जाएगा?!

यह साबित हो जाने के बाद कि आशूरा ए मोहर्रम के दिन रोज़ा रखने का हुक्म न अल्लाह ने दिया है और न उसके रसूल (स) ने, मानना पड़ेगा कि यह बनी उमय्या और यज़िदियों की शरारत है कि उन्होंने इमाम हुसैन (स) के क़याम और इंक़लाब को कमरंग करने के लिए इस्लामी शख़्सियात के नाम से आशूरा के फ़ज़ाइल और रोज़ा रखने की ताकीदात के बारे में हदीसें गढ़ डालीं ताकि इस तरह राए आम्मा (मुसलमानों) को मक़सदे इमाम हुसैन (अ) से हटा दिया जाए, लेकिन चूँकि यह इंक़लाब, इमाम हुसैन (अ) ने ख़ुदा के लिए बरपा किया था लेहाज़ा ख़ुदावंदे आलम ने इसकी हिफ़ाज़त का इंतज़ाम किया हुआ है और यह ख़ुदा ही का इंतज़ाम है कि ख़ुद अहले सुन्नत के मुवर्रेख़ीन (इतिहासकार) और मुहक़्क़ेक़ीन ने फ़ज़ाइले आशूरा और आशूरा ए मोहर्रम का रोज़ा रखने वाली रिवायात को मनगढ़त बताया है, जिनको हम इख़्तेसार के साथ पेश कर रहे हैः

1- अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास (र) से रिवायत है कि नबी (स) ने फ़रमाया कि आशूरा के दिन रोज़ा रखो और यहूदियों की इस तरह मुख़ालेफ़त करो कि इस से एक दिन पहले और एक दिन बाद भी रोज़ा रखो।

यह रिवायत हुज़ूर की निसबत से भी सनद के एतबार से ज़ईफ़ और मुनकर है। (नेलुल अवतार, अल शोकानी, जिल्द 4, पेज 289, तहक़ीक़ एसामुद्दीन अल सबा बती, नाशिर दारुल हदीस मिस्र, पहला एडीशन 1993 ई)

2- जो शख़्स आशूरा के दिन अपने अहल व अयाल पर फ़राख़ दिली से ख़र्च करेगा, अल्लाह तआला पूरा साल उसके साथ फ़राख़ दिली का मआमला करेंगा।

सऊदी अरब की तंज़ीम ‘‘अल जमीअतुल इलमिया अल सऊदिया लिल सुन्ना वा उलूमेहा" की वेबसाइट: www.sunnah.org.sa

पर किसी ने इसी हदीस के बारे में सवाल पूछा है कि क्या यह हदीस सहीह है या नहीं? तनज़ीम ने वेबसाइट पर तफ़सील से जवाब देते हुए लिखा है कि यह हदीस रसूल अल्लाह (स) से मरवी नहीं है, वेबसाइट ने इमाम अहमद, इब्ने रजब, अक़ीली, हाफ़िज़, अबूज़र अतुर्राज़ी, दारे क़ुतनी, इब्ने तैमिया, इब्ने अब्दुल हादी, ज़हबी, इब्नुल क़य्यम और अलबानी के हवाले से लिखा है कि यह हदीस मनघड़त और झूठी है, ज़ियादा जानकारी के लिए यह लिंक मुलाहेज़ा हो।

http://www.sunnah.org.sa/sunnah-sciences/counsel-hadith/87-2010-07-21-12-38-57/624-2010-08-06-03-18-44

3- जिस शख़्स ने आशूर के दिन रोज़ा रखा, अल्लाह तआला उसके लिए 60 साल के रोज़े और उनकी रातों के क़याम की इबादत लिख देंगा, जिसने आशूर के दिन रोज़ा रखा उसे 10 हज़ार फ़रिश्तों के अमल के बराबर अज्र मिलेगा, जिसने आशूर के दिन रोज़ा रखा उसे एक हज़ार हुज्जाज और उमरा करने वालों के अमल के बराबर सवाब हासिल होगा, जिसने आशूर के दिन रोज़ा रखा उसे 10 हज़ार शहीदों का अज्र मिलेगा, जिसने आशूर के दिन रोज़ा रखा अल्लाह तआला उसके लिए 7 आसमानें का तमाम अज्र लिख देंगा, जिस शख़्स के यहाँ किसी मोमिन ने आशूर के दिन रोज़ा इफ़तार किया तो गोया उसके यहाँ पूरी उम्मते मुहम्मद (स) ने रोज़ा इफ़तार किया, जिसने आशूर के दिन किसी भूके को पेट भरके खाना खिलाया तो उसने गोया उम्मते मुहम्मद (स) के तमाम फ़क़ीरों को खाना खिलाया, जिस शख़्स ने (इस दिन) किसी यतीम के सर पर हाथ फेरा तो उस (यतीम) के सर के बाल के बराबर उसके लिए जन्नत में एक दर्जा बुलंद किया जाएगा, इस पर सैय्यदना उमर ने अर्ज़ किया कि: ऐ अल्लाह के रसूल (स)! बिला शुभा, आशूर का दिन अता करके अल्लाह तआला ने हमें बड़ा ही नवाज़ा है, आपने फ़रमायाः अल्लाह तआला ने आसमानों, ज़मीन, पहाड़ों, तारों, क़लम और लौह की तख़लीक़ इसी दिन की है, इसी तरह जिब्रील, फ़रिश्तों और आदम की तख़लीक़ भी इसी यौमे आशूर को की है, सैय्यदना इब्राहीम की विलादत भी इसी दिन हुई है, इन्हें आग से भी इसी दिन बचाया, सैय्यदना इस्माईल को क़ुर्बान हो जाने से भी इसी दिन बचाया (तो फिर मुसलमान 10 ज़िलहिज्जा को ईद उल अज़हा क्यों मनाते हैं?) फ़िरऔन को भी इसी दिन दरया में डुबोया (इसको हम तहक़ीक़ से साबित कर चुके हैं कि यह ग़लत है) सैय्यदना इद्रीस को भी इसी दिन उठाया, उनकी पैदाइश भी उसी दिन हुई थी, हज़रत आदम की लग़ज़िश भी इसी आशूर को मुआफ़ फ़रमाई (जनाबे आदम (अ) के ज़माने में तो कोई कलेंडर ही न था? तो कैसे मालूम हुआ के आशूर का दिन था) दाऊद (अ) की लग़ज़िश भी इसी दिन मुआफ़ फ़रमाई, हज़रत सुलेमान को बादशाहत भी इसी दिन अता की थी, मुहम्मद (स) की विलादत भी आशूर के दिन हुई थी (तो फिर 12 रबी उल अव्वल को ईदे मीलाद उल नबी क्यों मनाया जाता है?) अल्लाह अपने अर्श पर भी इसी दिन मुस्तवी हुआ और क़यामत भी आशूर ही के दिन बरपा होगी।

क़ारेईन! देखा आपने, आशूर के दिन के लिए बनी उमय्या के यज़ीदी दरबारी हदीस साज़ों ने सारी मुनासबतें गढ़ डालीं ताकि नबी (स) के चहीते नवासे हज़रत इमाम हुसैन (अ) की दिलसोज़ शहादत और इसकी तासीर की तरफ़ से लोगों की तवज्जोह हट जाए और बनी उमय्या बड़े आराम से हुकूमत करते रहें, यह इतनी मनसूबा बंद तूलानी रिवायत किसी भी तरह दरायत पर पूरी नहीं उतरती है, इसी लिए इस रिवायत के बारे में अहले सुन्नत के मशहूर आलिम इमाम जौज़ी फ़रमाते हैं कि: यह बिला शुबहा मनगढ़त रिवायत है, इमाम अहमद बिन हंबल ने इसके एक रावी “हबीब बिन अबी हबीब” को रिवायते हदीस के बाब में झूठा क़रार दिया है, इब्ने अदी का उसी के बारे में कहना है कि वह हदीसें गढ़ा करता था, अबू हातम भी फ़रमाते हैं कि यह रिवायत बिल्कुल बातिल और बेबुनियाद है। (अल मोज़ूआत, इब्ने जौज़ी, जिल्द 2, पेज 203, नाशिर मुहम्मद अबद हुसैन, साहिबे अल मकतबा तुल सलफ़िया मदीना, पहला एडीशन 1996 ई)

4- जिस शख़्स ने मोहर्रम के इब्तेदाई 9 दिन के रोज़े रखे अल्लाह तआला उसके लिए आसमान में मीलों लंबा चौड़ा एक ऐसा गुंबद बनाएगा जिस के चार दरवाज़े होंगे।

यह रिवायत भी जाली और झूठी रिवायतों में से है। (अल मोज़ूआत इब्ने जौज़ी, जिल्द 2, पेज 193)

इसके अलावा आशूर की फ़ज़ीलत के बारे में और भी बहुत सी मनगढ़त हदीसों की निशानदेही की गई है जिनको हम इख़्तसार की वजह से नक़्ल नहीं कर रहे हैं।

ख़ुदावंदे आलम तमाम मुसलमानों को क़ुरआन और रसूल स. की इतरत के दामन से लिपटाए रखे। (आमीन)

लेखक:  पैग़म्बर नौगाँवी

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